Wednesday, 27 July 2011

वो  मेरी  आँखों  में  बसी  है  ख्वाब  बनकर
ऑंखें  खोलू  तो  सामने  है  हमराज़  बनकर
सोचता  हु  उससे  नज़रे  चुराऊ  तो  कैसे
वो  मेरी  रूह  में  बसी  है  अहसास  बनकर
जब  कभी  उससे  दूर  जाने  की करता  हूँ   कोशिश
याद  रोकती  है  उसकी  मुझको  साया  बनकर
जब  कभी  चाह  मैंने  हाले  दिल  बताना  उसको
खौफ-ए-जुदाई  ने  रोका  मुझको  बंदिश  बनकर
जब  कभी  किया  मैंने  इजहारे  मोहब्बत  उनसे
नज़र  अंदाज़  किये  मेरे  जज्बातों  को  उन्होंने  हमेशा   हंस कर
कुछ  रिश्तों  की  तकदीर  ही  ऐसी  होती  है "आसिफ"
रह  जाते  जो  अक्सर हैं  एक  यादगार  बनकर | 


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